Ashtavakra
Gita
Brahma Satyam
Jagan Mithya Jeevo Brahmaiva Na Parah
Fifteenth Chapter / पंचदश अध्याय
अष्टावक्र गीता(मूल संस्कृत)
|
अष्टावक्र गीता(हिंदी भावानुवाद)
|
Ashtavakra Gita (English)
|
अष्टावक्र उवाच -
यथातथोपदेशेन कृतार्थः सत्त्वबुद्धिमान्। आजीवमपि जिज्ञासुः परस्तत्र विमुह्यति॥१५- १॥ |
श्रीअष्टावक्र कहते हैं -
सात्विक बुद्धि से युक्त मनुष्य साधारण प्रकार के उपदेश से भी कृतकृत्य(मुक्त) हो जाता है परन्तु ऐसा न होने
पर आजीवन जिज्ञासु होने पर भी परब्रह्म का
यथार्थ ज्ञान नहीं होता है॥१॥
|
Sri
Ashtavakra says - A man with honest approach can attain enlightenment by
ordinary instructions. Without it even the life long curiosity is not going
to help.॥1॥
|
मोक्षो विषयवैरस्यं बन्धो
वैषयिको रसः।
एतावदेव विज्ञानं यथेच्छसि तथा कुरु॥१५- २॥ |
विषयों से उदासीन होना
मोक्ष है और विषयों में रस लेना बंधन है, ऐसा जानकर तुम्हारी जैसी इच्छा हो वैसा ही करो ॥२॥
|
Indifference
in sense objects is liberation and interest in them is bondage. Knowing thus,
do as you like.॥2॥
|
वाग्मिप्राज्ञामहोद्योगं
जनं मूकजडालसं।
करोति तत्त्वबोधोऽयमतस्त्यक्तो बुभुक्षभिः॥१५- ३॥ |
वाणी, बुद्धि और कर्मों से महान कार्य करने वाले मनुष्यों को तत्त्व-ज्ञान शांत, स्तब्ध और कर्म न करने वाला
बना देता है, अतः सुख की इच्छा रखने वाले इसका त्याग कर देते हैं॥३॥
|
Eloquent,
intelligent and industrious men become calm, silent and inactive after
knowing the Truth so the people who are after worldly pleasure discard it.॥3॥
|
न त्वं देहो न ते देहो
भोक्ता कर्ता न वा भवान्।
चिद्रूपोऽसि सदा साक्षी निरपेक्षः सुखं चर॥१५- ४॥ |
न तुम शरीर हो और न यह शरीर
तुम्हारा है, न ही तुम भोगने वाले अथवा करने वाले हो, तुम चैतन्य रूप हो, शाश्वत साक्षी हो, इच्छा रहित हो, अतः सुखपूर्वक रहो॥४॥
|
Neither are
you this body nor this body is yours, you are not the doer of actions or the
one who bears their results. You are consciousness, eternal witness and
without desires so stay blissfully.॥4॥
|
रागद्वेषौ मनोधर्मौ न
मनस्ते कदाचन।
निर्विकल्पोऽसि बोधात्मा निर्विकारः सुखं चर॥१५- ५॥ |
राग(प्रियता) और
द्वेष(अप्रियता) मन के धर्म हैं और तुम किसी भी प्रकार से मन नहीं हो, तुम कामनारहित हो, ज्ञान स्वरुप हो, विकार रहित हो, अतः सुखपूर्वक रहो॥५॥
|
Liking and
disliking are traits of mind and you are not mind in any case. You are
choice-less. You are of the form of knowledge and flawless so stay
blissfully.॥5॥
|
सर्वभूतेषु चात्मानं
सर्वभूतानि चात्मनि।
विज्ञाय निरहंकारो निर्ममस्त्वं सुखी भव॥१५- ६॥ |
समस्त प्राणियों को स्वयं
में और स्वयं को सभी प्राणियों में स्थित जान कर अहंकार और आसक्ति से रहित होकर तुम सुखी हो जाओ॥६॥
|
Know that
all beings exist in you and you exist in all beings. So leave ego and
attachment and stay blissfully.॥6॥
|
विश्वं स्फुरति यत्रेदं
तरंगा इव सागरे।
तत्त्वमेव न सन्देहश्चिन्मूर्ते विज्वरो भव॥१५- ७॥ |
इस विश्व की उत्पत्ति तुमसे
उसी प्रकार होती है जैसे कि समुद्र से लहरों
की, इसमें संदेह नहीं है। तुम चैतन्य स्वरुप हो, अतः चिंता रहित हो जाओ॥७॥
|
Undoubtedly,
this world is created from you just like waves from the sea. You are
consciousness so leave all worries.॥7॥
|
श्रद्धस्व तात श्रद्धस्व
नात्र मोऽहं कुरुष्व भोः।
ज्ञानस्वरूपो भगवानात्मा त्वं प्रकृतेः परः॥१५- ८॥ |
हे प्रिय! इस अनुभव पर
निष्ठा रखो, इस पर श्रद्धा रखो, इस अनुभव की सत्यता के सम्बन्ध में मोहित मत हो, तुम
ज्ञान स्वरुप हो, तुम प्रकृति से परे और आत्म स्वरुप भगवान हो॥८॥
|
O dear,
trust your experience, have faith on it. Don't have any doubt on this
experience. You are Knowledge. You are beyond nature and Lord.॥8॥
|
गुणैः संवेष्टितो
देहस्तिष्ठत्यायाति याति च।
आत्मा न गंता नागंता किमेनमनुशोचसि॥१५- ९॥ |
गुणों से निर्मित यह शरीर
स्थिति, जन्म और मरण को प्राप्त होता है, आत्मा न आती है और न ही जाती है, अतः तुम क्यों शोक करते हो॥९॥
|
This body,
which is composed of three attributes of nature stays, comes and goes. Soul
(you) neither come nor go, so why do you bother about it.॥9॥
|
देहस्तिष्ठतु कल्पान्तं
गच्छत्वद्यैव वा पुनः।
क्व वृद्धिः क्व च वा हानिस्तव चिन्मात्ररूपिणः॥१५- १०॥ |
यह शरीर सृष्टि के अंत तक
रहे अथवा आज ही नाश को प्राप्त हो जाये, तुम तो चैतन्य स्वरुप हो, इससे तुम्हारी क्या हानि या
लाभ है॥१०॥
|
This body
may remain till the end of Nature or is destroyed today, you are not going to
gain and lose anything from it as you are consciousness.॥10॥
|
त्वय्यनंतमहांभोधौ
विश्ववीचिः स्वभावतः।
उदेतु वास्तमायातु न ते वृद्धिर्न वा क्षतिः॥१५- ११॥ |
अनंत महासमुद्र रूप तुम में
लहर रूप यह विश्व स्वभाव से ही उदय और अस्त को प्राप्त होता है, इसमें तुम्हारी क्या वृद्धि
या क्षति है॥११॥
|
This world
rises and subsides in you naturally as waves in a great ocean. You do not
gain or lose from it.॥11॥
|
तात चिन्मात्ररूपोऽसि न ते
भिन्नमिदं जगत्।
अतः कस्य कथं कुत्र हेयोपादेयकल्पना॥१५- १२॥ |
हे प्रिय, तुम केवल चैतन्य रूप हो और यह विश्व तुमसे अलग नहीं है, अतः किसी की किसी से श्रेष्ठता या
निम्नता की कल्पना किस प्रकार की जा सकती है॥१२॥
|
O dear! you
are pure consciousness only and this world is not separate from you. So how
can anything be considered superior or inferior.॥12॥
|
एकस्मिन्नव्यये शान्ते
चिदाकाशेऽमले त्वयि।
कुतो जन्म कुतो कर्म कुतोऽहंकार एव च॥१५- १३॥ |
इस अव्यय, शांत,
चैतन्य, निर्मल आकाश में तुम अकेले ही हो, अतः तुममें जन्म, कर्म और अहंकार की
कल्पना किस प्रकार की जा सकती है॥१३॥
|
You are
alone in this imperishable, calm, conscious and stainless space so how can
birth, action and ego be imagined in you.॥13॥
|
यत्त्वं पश्यसि
तत्रैकस्त्वमेव प्रतिभाससे।
किं पृथक् भासते स्वर्णात् कटकांगदनूपुरम्॥१५- १४॥ |
तुम एक होते हुए भी अनेक
रूप में प्रतिबिंबित होकर दिखाई देते हो। क्या स्वर्ण कंगन, बाज़ूबन्द और पायल से अलग
दिखाई देता है॥१४॥
|
You being
one, appear to be many due to your multiple reflection. Is gold different
from bracelets, armlets and anklets?॥14॥
|
अयं सोऽहमयं नाहं विभागमिति
संत्यज।
सर्वमात्मेति निश्चित्य निःसङ्कल्पः सुखी भव॥१५- १५॥ |
यह मैं हूँ और यह मैं नहीं
हूँ, इस प्रकार के भेद को त्याग दो। सब कुछ आत्मस्वरूप तुम ही हो, ऐसा निश्चय करके और कोई संकल्प न करते हुए सुखी हो जाओ॥१५॥
|
This is me and
that is not me, give up all such dualities. Decide that as a soul, you are
everything, have no other resolutions and stay blissfully.॥15॥
|
तवैवाज्ञानतो विश्वं
त्वमेकः परमार्थतः।
त्वत्तोऽन्यो नास्ति संसारी नासंसारी च कश्चन॥१५- १६॥ |
अज्ञानवश तुम ही यह विश्व
हो पर ज्ञान दृष्टि से देखने पर केवल एक तुम ही हो,
तुमसे अलग कोई दूसरा संसारी या
असंसारी किसी भी प्रकार से नहीं है॥१६॥
|
This world
appears to be real only due to ignorance. You alone exist in reality. There
is nothing worldly or unworldly apart from you any how.॥16॥
|
भ्रान्तिमात्रमिदं विश्वं न
किंचिदिति निश्चयी।
निर्वासनः स्फूर्तिमात्रो न किंचिदिव शाम्यति॥१५- १७॥ |
यह विश्व केवल भ्रम(स्वप्न
की तरह असत्य) है और कुछ भी नहीं, ऐसा निश्चय करो। इच्छा और चेष्टा रहित हुए बिना कोई भी शांति को
प्राप्त नहीं होता है॥१७॥
|
Decide that,
this world is unreal like an illusion(or dream) and does not exist at all.
Without becoming free from desires and actions, nobody attains peace.॥17॥
|
एक एव भवांभोधावासीदस्ति
भविष्यति।
न ते बन्धोऽस्ति मोक्षो वा कृत्यकृत्यः सुखं चर॥१५- १८॥ |
एक ही भवसागर(सत्य) था, है और रहेगा। तुममें
न मोक्ष है और न बंधन, आप्त-काम होकर सुख से विचरण करो॥१८॥
|
Truth or the
ocean of being alone existed, exists and will exist. You neither have bondage
nor liberation. Be fulfilled and wander happily.॥18॥
|
मा सङ्कल्पविकल्पाभ्यां
चित्तं क्षोभय चिन्मय।
उपशाम्य सुखं तिष्ठ स्वात्मन्यानन्दविग्रहे॥१५- १९॥ |
हे चैतन्यरूप! भाँति-भाँति
के संकल्पों और विकल्पों से अपने चित्त को अशांत मत करो, शांत होकर अपने आनंद रूप
में सुख से स्थित हो जाओ॥१९॥
|
You are of
the form of consciousness, do not get anxious with different resolves and
alternatives. Be at peace and remain in your blissful form pleasantly.॥19॥
|
त्यजैव ध्यानं सर्वत्र मा
किंचिद् हृदि धारय।
आत्मा त्वं मुक्त एवासि किं विमृश्य करिष्यसि॥१५- २०॥ |
सभी स्थानों से अपने ध्यान
को हटा लो और अपने हृदय में कोई विचार न करो। तुम आत्मरूप हो और मुक्त ही हो, इसमें विचार करने की क्या आवश्यकता है॥२०॥
|
Remove your
focus from anything and everything and do not think in your heart. You are
soul and free by your very nature, what is there to think in it?॥20॥
|
Sixteenth Chapter / षोडश अध्याय
अष्टावक्र गीता(मूल संस्कृत)
|
अष्टावक्र गीता(हिंदी
भावानुवाद)
|
Ashtavakra Gita (English)
|
अष्टावक्र उवाच -
आचक्ष्व शृणु वा तात नानाशास्त्राण्यनेकशः। तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणाद् ऋते॥१६- १॥ |
श्री अष्टावक्र कहते हैं -
हे प्रिय, विद्वानों से सुनकर अथवा बहुत शास्त्रों के पढ़ने से तुम्हारी आत्म
स्वरुप में वैसी स्थिति नहीं होगी जैसी कि सब कुछ उचित रीति से भूल जाने से ॥१॥
|
Sri
Ashtavakra says - O dear! Even after hearing from many scholars or reading
many scriptures, you will not be established in self as after forgetting
every single thing.॥1॥
|
भोगं कर्म समाधिं वा कुरु
विज्ञ तथापि ते।
चित्तं निरस्तसर्वाशामत्यर्थं रोचयिष्यति॥१६- २॥ |
कर्म भोग करो या समाधि में
रहो पर चूँकि तुम विद्वान हो अतः तुम्हें चित्त की सभी आशाओं को शांत करना
अत्यंत आनंदप्रद होगा॥२॥
|
You
can either enjoy fruits of your action or enjoy meditative state. Since you
are knowledgeable, stopping all desires of your mind will give you more
pleasure.॥2॥
|
आयासात्सकलो दुःखी नैनं
जानाति कश्चन।
अनेनैवोपदेशेन धन्यः प्राप्नोति निर्वृतिम्॥१६- ३॥ |
प्रयत्न से ही सभी दुखी हैं
पर कोई इसे जानता नहीं है। इस निष्पाप उपदेश से ही भाग्यवान व्यक्ति सभी
वृत्तियों से रहित हो जाते हैं ॥३॥
|
It is effort which is cause of everyone's pain
but nobody knows it. By following just this flawless instruction, fortunate
become free from all their instincts. ॥3॥
|
व्यापारे खिद्यते यस्तु
निमेषोन्मेषयोरपि।
तस्यालस्य धुरीणस्य सुखं नन्यस्य कस्यचित्॥१६- ४॥ |
जिसको पलकों का खोलना और
बंद करना भी कार्य लगता है उस परम आलसी के लिए ही सुख है अन्य किसी के लिए किसी
भी प्रकार से नहीं ॥४॥
|
Happiness
is there only for an extremely lazy person who considers blinking of eyes
also a task. Nobody else is happy.॥4॥
|
इदं कृतमिदं नेति
द्वंद्वैर्मुक्तं यदा मनः।
धर्मार्थकाममोक्षेषु निरपेक्षं तदा भवेत्॥१६- ५॥ |
यह करना चाहिए और यह नहीं
जब मन इस प्रकार के द्वंद्वों से से मुक्त हो जाता है तब उसको धर्म, अर्थ, काम
और मोक्ष की अपेक्षा (इच्छा) नहीं रहती ॥५॥
|
When
mind is free from confusion of doing and not doing, it does not desire
righteousness, wealth, sex or liberation.॥5॥
|
विरक्तो विषयद्वेष्टा रागी
विषयलोलुपः।
ग्रहमोक्षविहीनस्तु न विरक्तो न रागवान्॥१६- ६॥ |
न विषयों से द्वेष करने
वाला विरक्त,
न ही विषयों में आसक्त
रागवान, वह तो निश्चय ही विषयों के ग्रहण और
त्याग से विहीन है ॥६॥
|
Neither
he is averse to senses or is attached to them but he is definitely
indifferent to their acceptance and rejection.॥6॥
|
हेयोपादेयता
तावत्संसारविटपांकुरः।
स्पृहा जीवति यावद् वै निर्विचारदशास्पदम्॥१६- ७॥ |
जब तक (विषयों के) ग्रहण और
त्याग की कामना रहती है तब तक संसार रूपी वृक्ष का अंकुर विद्यमान है, अतः विचारहीन अवस्था
का आश्रय लो
॥७॥
|
As
long as there is thought of acceptance and rejection of senses, seed of this
world-tree exists. So, take shelter in thoughtlessness.॥7॥
|
प्रवृत्तौ जायते रागो
निर्वृत्तौ द्वेष एव हि।
निर्द्वन्द्वो बालवद् धीमान् एवमेव व्यवस्थितः॥१६- ८॥ |
प्रवृत्ति से आसक्ति और
निवृत्ति से द्वेष उत्पन्न होता है अतः बुद्धिमान, बालक के समान निर्द्वंद्व होकर स्थित रहे ॥८॥
|
Habit
gives rise to attachment and rejection brings aversion. So, an
intelligent person should stay indifferent like a child.॥8॥
|
हातुमिच्छति संसारं रागी
दुःखजिहासया।
वीतरागो हि निर्दुःखस्तस्मिन्नपि न खिद्यति॥१६- ९॥ |
विषय में आसक्त पुरुष दुःख
से बचने के लिए संसार का त्याग करना चाहता है पर वह विरक्त ही सुखी है जो उन दुखों में भी खेद नहीं करता है ॥९॥
|
A
person who is attached to senses wants to leave this world to avoid the
problems. But the one who is indifferent to these problems does not feel
pain.॥9॥
|
यस्याभिमानो मोक्षेऽपि
देहेऽपि ममता तथा।
न च ज्ञानी न वा योगी केवलं दुःखभागसौ॥१६- १०॥ |
जो मोक्ष भी चाहता है और इस
शरीर में आसक्ति भी रखता है, वह न
ज्ञानी है और न योगी बल्कि केवल दुःख को प्राप्त करने वाला है ॥१०॥
|
One
who wants liberation and is also attached to his body, is neither
knowledgeable nor yogi. He just suffers.॥10॥
|
हरो यद्युपदेष्टा ते हरिः
कमलजोऽपि वा।
तथापि न तव स्वाथ्यं सर्वविस्मरणादृते॥१६- ११॥ |
यदि तुम्हारे उपदेशक
साक्षात् शिव, विष्णु या ब्रह्मा भी हों तो भी सब
कुछ विस्मरण किये बिना तुम आत्म स्वरुप को प्राप्त नहीं होगे ॥११॥
|
Unless
you forget everything else, you will not be established in self, even though
Shiva, Vishnu or Brahma themselves teach you.॥11॥
|
Seventeenth Chapter / सप्तदश अध्याय
अष्टावक्र गीता(मूल संस्कृत)
|
अष्टावक्र गीता(हिंदी भावानुवाद)
|
Ashtavakra Gita (English)
|
अष्टावक्र उवाच -
तेन ज्ञानफलं प्राप्तं योगाभ्यासफलं तथा। तृप्तः स्वच्छेन्द्रियो नित्यं एकाकी रमते तु यः॥१७- १॥ |
अष्टावक्र कहते हैं - उन्होंने ज्ञान और योग (दोनों) का फल
प्राप्त कर लिया है
जो सदा संतुष्ट, शुद्ध इन्द्रियों वाले और एकांत में
रमने वाले हैं ॥१॥
|
Ashtavakra says: He has attained the fruits of
Knowledge and Yoga both, who is content, is of purified senses, and always
enjoys his solitude.॥1॥
|
न कदाचिज्जगत्यस्मिन् तत्त्वज्ञा हन्त खिद्यति।
यत एकेन तेनेदं पूर्णं ब्रह्माण्डमण्डलम्॥१७- २॥ |
तत्त्व(ब्रह्म) को जानने वाला कभी भी किसी बात से इस संसार में दुखी नहीं होता है क्योंकि उस एक ब्रह्म से ही
यह सम्पूर्ण विश्व पूर्णतः व्याप्त है॥२॥
|
The knower of truth is never troubled by anything
in this world, for the whole world is completely pervaded by that
Brahma(Lord) alone.॥2॥
|
न जातु विषयाः केऽपि स्वारामं हर्षयन्त्यमी।
सल्लकीपल्लवप्रीतमिवेभं निंबपल्लवाः॥१७- ३॥ |
अपनी आत्मा में रमण करने वाला किसी विषय को प्राप्त करके
हर्षित नहीं होता
जैसे कि सलाई के पत्तों से प्रेम करने वाला हाथी नीम के पत्तों को पाकर हर्ष नहीं करता है॥३॥
|
None of the senses can please a man, who is
established in Self, just as Neem leaves do not please the elephant that
likes Sallaki leaves.॥3॥
|
यस्तु भोगेषु भुक्तेषु न भवत्यधिवासिता।
अभुक्तेषु निराकांक्षी तदृशो भवदुर्लभः॥१७- ४॥ |
जिसकी प्राप्त हो चुके भोगों में आसक्ति नहीं है और न
प्राप्त हुए भोगों की इच्छा नहीं है, ऐसा व्यक्ति इस संसार में दुर्लभ है॥४॥
|
Such man is rare who is not
attached to the pleasures enjoyed, and does not desire pleasures which are
unattained.॥4॥
|
बुभुक्षुरिह संसारे मुमुक्षुरपि दृश्यते।
भोगमोक्षनिराकांक्षी विरलो हि महाशयः॥१७- ५॥ |
इस संसार में सांसारिक भोगों की इच्छा वाले भी देखे जाते
हैं और मोक्ष की इच्छा
वाले भी पर इन दोनों इच्छाओं से रहित महापुरुष का मिलना दुर्लभ है॥५॥
|
People desirous of worldly pleasures are seen and
people desirous of liberation are also seen in this world. But one who is
indifferent to both of these desires is really rare.॥5॥
|
धर्मार्थकाममोक्षेषु जीविते मरणे तथा।
कस्याप्युदारचित्तस्य हेयोपादेयता न हि॥१७- ६॥ |
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जीवन और मृत्यु में उपयोगिता और अनुपयोगिता की समता किसी
महात्मा में ही होती है॥६॥
|
Only few great souls are free from attachment and
repulsion to righteousness, wealth, desires, liberation, life and death. ॥6॥
|
वांछा न विश्वविलये न द्वेषस्तस्य च स्थितौ।
यथा जीविकया तस्माद् धन्य आस्ते यथा सुखम्॥१७- ७॥ |
न विश्व के लीन होने की इच्छा और न ही इसकी स्थिति से द्वेष, जैसे जीवन है (वे महात्मा) उसी में आनंदित और कृतकृत्य
रहते हैं॥७॥
|
He neither desires end of this world, nor despise
its continued existence. He lives the life as it is, feeling content and
grateful.॥7॥
|
कृतार्थोऽनेन ज्ञानेनेत्येवं गलितधीः कृती।
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्न् अश्नन्नस्ते यथा सुखम्॥१७- ८॥ |
इस ज्ञान से कृतार्थ होकर बुद्धि को अन्तर्हित(विलीन) करके
देखते हुए, सुनते हुए, स्पर्श करते हुए, सूंघते हुए और खाते हुए सुखपूर्वक रहते हैं ॥८॥
|
Blessed by this knowledge, subsiding intelligence
in Self, they stay content even in seeing, hearing, touching and eating.॥8॥
|
शून्या दृष्टिर्वृथा चेष्टा विकलानीन्द्रियाणि च।
न स्पृहा न विरक्तिर्वा क्षीणसंसारसागरे॥१७- ९॥ |
दृष्टि को शून्य और अस्थिर इन्द्रियों की चेष्टा को नष्ट
करके, इस अशक्त संसार रूपी सागर से न तो
आसक्ति रखते हैं और न
ही विरक्ति॥९॥
|
Keeping their gaze unoccupied, having stilled the
tendency of their senses, they have no attachment or aversion for this feeble
world.॥9॥
|
न जगर्ति न निद्राति नोन्मीलति न मीलति।
अहो परदशा क्वापि वर्तते मुक्तचेतसः॥१७- १०॥ |
न जगता ही है और न सोता ही है, न ही आँखें खोलता या बंद करता है, अहा! उस परम अवस्था में कोई मुक्त चेतना वाला विरला ही
रहता है॥१०॥
|
Aha! in that supreme state, where there is no
wakening, no sleep, no opening or closing of eyes, rarely someone with liberated
consciousness stays.॥10॥
|
सर्वत्र दृश्यते स्वस्थः सर्वत्र विमलाशयः।
समस्तवासना मुक्तो मुक्तः सर्वत्र राजते॥१७- ११॥ |
सदा स्वयं
में स्थित, सर्वत्र स्वच्छ प्रयोजन वाला, समस्त वासनाओं से मुक्त, मुक्त पुरुष सर्वत्र सुशोभित होता है॥११॥
|
Always established in self,
with stainless intent everywhere, free from all the desires, such a liberated
man always shines.॥11॥
|
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्न् अश्नन् गृण्हन् वदन्
व्रजन्।
ईहितानीहितैर्मुक्तो मुक्त एव महाशयः॥१७- १२॥ |
देखते हुए, सुनते
हुए, स्पर्श करते हुए, सूंघते हुए, खाते
हुए, लेते हुए, बोलते हुए, चलते
हुए, इच्छा करते हुए और इच्छा न करते हुए, ऐसा महात्मा मुक्त ही है(वस्तुतः कुछ नहीं करता)॥१२॥
|
Even in, seeing, hearing, feeling, smelling,
eating, taking, speaking, walking, desiring and not desiring such a great
soul basically does nothing.॥12॥
|
न निन्दति न च स्तौति न हृष्यति न कुप्यति।
न ददाति न गृण्हाति मुक्तः सर्वत्र नीरसः॥१७- १३॥ |
न निंदा करता है और न प्रशंसा करता है, न लेता है, न
देता है, इन सबमें अनासक्त वह सब प्रकार से
मुक्त है॥१३॥
|
He neither blames nor praises, he neither gives
nor takes. Indifferent from all these he is free in every way.॥13॥
|
सानुरागां स्त्रियं दृष्ट्वा मृत्युं वा समुपस्थितं।
अविह्वलमनाः स्वस्थो मुक्त एव महाशयः॥१७- १४॥ |
अनुराग-युक्त स्त्रियों को देख कर अथवा मृत्यु को उपस्थित
देख कर विचलित न होने वाला, स्वयं
में स्थित वह महात्मा मुक्त ही है॥१४॥
|
One who remains unperturbed on seeing women with
desire or death, established in self, that noble man is liberated.॥14॥
|
सुखे दुःखे नरे नार्यां
संपत्सु विपत्सु च।
विशेषो नैव धीरस्य सर्वत्र समदर्शिनः॥१७- १५॥ |
धीर पुरुष सुख में, दुःख में, पुरुष
में, नारी में, संपत्ति में और विपत्ति में अंतर न देखता हुआ सर्वत्र
समदर्शी होता है॥१५॥
|
For such a man with patience, pleasure and pain,
men and women, success and failure are alike. For him everything is equivalent.॥15॥
|
न हिंसा नैव कारुण्यं
नौद्धत्यं न च दीनता।
नाश्चर्यं नैव च क्षोभः क्षीणसंसरणे नरे॥१७- १६॥ |
क्षीण संसार वाले पुरुष में
न हिंसा और न करुणा,
न गर्व और न दीनता, न आश्चर्य और न क्षोभ ही होते हैं॥१६॥
|
In a person free from attachment for this world,
there is neither aggression nor submissiveness, neither pride nor lowliness,
neither surprise nor agitation.॥16॥
|
|
|
|
न मुक्तो विषयद्वेष्टा न वा
विषयलोलुपः।
असंसक्तमना नित्यं प्राप्ताप्राप्तमुपाश्नुते॥१७- १७॥ |
मुक्त पुरुष न तो विषयों से
द्वेष करता है और न आसक्ति ही, (अतः)
उनकी प्राप्ति और अप्राप्ति में सदा समान मन वाला रहता है॥१७॥
|
Liberated
man neither dislikes sense gratification nor likes them, hence he remains
unperturbed in their achievement and non-achievement.॥17॥
|
समाधानसमाधानहिताहितविकल्पनाः।
शून्यचित्तो न जानाति कैवल्यमिव संस्थितः॥१७- १८॥ |
संदेह और समाधान एवं हित और
अहित की कल्पना से परे, शून्य
चित्त वाला पुरुष कैवल्य में ही स्थित रहता है॥१८॥
|
Beyond
doubts and solutions, good and bad, a person with still mind, remains
established in self.॥18॥
|
|
|
|
निर्ममो निरहंकारो न
किंचिदिति निश्चितः।
अन्तर्गलितसर्वाशः कुर्वन्नपि करोति न॥१७- १९॥ |
ममता रहित, अहंकार रहित और दृश्य जगत के अस्तित्व रहित होने के निश्चय
वाला, सभी इच्छाओं से रहित, करता हुआ भी कुछ नहीं करता॥१९॥
|
A
man who is free from attachment, free of ego, with a definitive view of
non-existence of this visible world, even while doing does not do anything.॥19॥
|
मनःप्रकाशसंमोहस्वप्नजाड्यविवर्जितः।
दशां कामपि संप्राप्तो भवेद् गलितमानसः॥१७- २०॥ |
कोई भी मन की मोह, स्वप्न और जड़ता से रहित, प्रकाशित अवस्था को प्राप्त कर मन की इच्छाओं से रहित हो
जाये॥२०॥
|
Having
attained a state of mind which is devoid of delusion, dream and inertia and
full of light, one should discard all mental desires.॥20॥
|
Eighteenth Chapter / अष्टादश अध्याय
अष्टावक्र गीता(मूल संस्कृत)
|
अष्टावक्र गीता(हिंदी भावानुवाद)
|
Ashtavakra Gita (English)
|
अष्टावक्र उवाच॥
यस्य बोधोदये तावत्स्वप्नवद् भवति भ्रमः। तस्मै सुखैकरूपाय नमः शान्ताय तेजसे॥१८- १॥ |
|
Ashtavakra:
Praise be to that by the awareness of which delusion itself becomes
dream-like, to that which is pure happiness, peace and light. ॥1॥
|
अर्जयित्वाखिलान् अर्थान्
भोगानाप्नोति पुष्कलान्।
न हि सर्वपरित्याजमन्तरेण सुखी भवेत्॥१८- २॥ |
|
One
may get all sorts of pleasure by the acquisition of various objects of
enjoyment, but one cannot be happy except by the renunciation of everything. ॥2॥
|
कर्तव्यदुःखमार्तण्डज्वालादग्धान्तरात्मनः।
कुतः प्रशमपीयूषधारासारमृते सुखम्॥१८- ३॥ |
|
How
can there be happiness, for one who is burnt inside by the blistering sun of
the pain of things that need doing, without the rain of the nectar of peace? ॥3॥
|
भवोऽयं भावनामात्रो न
किंचित् परमर्थतः।
नास्त्यभावः स्वभावनां भावाभावविभाविनाम्॥१८- ४॥ |
|
This
existence is just imagination. It is nothing in reality, but there is no
non-being for natures that know how to distinguish being from non being. ॥4॥
|
न दूरं न च
संकोचाल्लब्धमेवात्मनः पदं।
निर्विकल्पं निरायासं निर्विकारं निरंजनम्॥१८- ५॥ |
|
The
realm of one's own self is not far away, and nor can it be achieved by the
addition of limitations to its nature. It is unimaginable, effortless, unchanging
and spotless. ॥5॥
|
व्यामोहमात्रविरतौ
स्वरूपादानमात्रतः।
वीतशोका विराजन्ते निरावरणदृष्टयः॥१८- ६॥ |
|
By
the simple elimination of delusion and the recognition of one's true nature,
those whose vision is unclouded live free from sorrow. ॥6॥
|
समस्तं कल्पनामात्रमात्मा
मुक्तः सनातनः।
इति विज्ञाय धीरो हि किमभ्यस्यति बालवत्॥१८- ७॥ |
|
Knowing
everything as just imagination, and himself as eternally free, how should the
wise man behave like a fool? ॥7॥
|
आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य
भावाभावौ च कल्पितौ।
निष्कामः किं विजानाति किं ब्रूते च करोति किम्॥१८- ८॥ |
|
Knowing
himself to be God and being and non-being just imagination, what should the
man free from desire learn, say or do? ॥8॥
|
अयं सोऽहमयं नाहं इति
क्षीणा विकल्पना।
सर्वमात्मेति निश्चित्य तूष्णींभूतस्य योगिनः॥१८- ९॥ |
|
Considerations
like 'I am this' or 'I am not this' are finished for the yogi who has gone
silent realising 'Everything is myself'. ॥9॥
|
न विक्षेपो न चैकाग्र्यं
नातिबोधो न मूढता।
न सुखं न च वा दुःखं उपशान्तस्य योगिनः॥१८- १०॥ |
|
For
the yogi who has found peace, there is no distraction or one-pointedness, no
higher knowledge or ignorance, no pleasure and no pain. ॥10॥
|
स्वाराज्ये भैक्षवृत्तौ च
लाभालाभे जने वने।
निर्विकल्पस्वभावस्य न विशेषोऽस्ति योगिनः॥१८- ११॥ |
|
The
dominion of heaven or beggary, gain or loss, life among men or in the forest,
these make no difference to a yogi whose nature it is to be free from
distinctions. ॥11॥
|
क्व धर्मः क्व च वा कामः
क्व चार्थः क्व विवेकिता।
इदं कृतमिदं नेति द्वन्द्वैर्मुक्तस्य योगिनः॥१८- १२॥ |
|
There is no religion, wealth, sensuality or
discrimination for a yogi free from the pairs of opposites such as 'I have
done this' and 'I have not done that'. ॥12॥
|
कृत्यं किमपि नैवास्ति न
कापि हृदि रंजना।
यथा जीवनमेवेह जीवन्मुक्तस्य योगिनः॥१८- १३॥ |
|
There
is nothing needing to be done, or any attachment in his heart for the yogi
liberated while still alive. Things are just for a life-time. ॥13॥
|
क्व मोहः क्व च वा विश्वं
क्व तद् ध्यानं क्व मुक्तता।
सर्वसंकल्पसीमायां विश्रान्तस्य महात्मनः॥१८- १४॥ |
|
There
is no delusion, world, meditation on That, or liberation for the pacified
great soul. All these things are just the realm of imagination. ॥14॥
|
येन विश्वमिदं दृष्टं स
नास्तीति करोतु वै।
निर्वासनः किं कुरुते पश्यन्नपि न पश्यति॥१८- १५॥ |
|
He
by whom all this is seen may well make out he doesn't exist, but what is the
desireless one to do? Even in seeing he does not see. ॥15॥
|
येन दृष्टं परं ब्रह्म
सोऽहं ब्रह्मेति चिन्तयेत्।
किं चिन्तयति निश्चिन्तो द्वितीयं यो न पश्यति॥१८- १६॥ |
|
He
by whom the Supreme Brahma is seen may think 'I am Brahma', but what is he to
think who is without thought, and who sees no duality. ॥16॥
|
दृष्टो येनात्मविक्षेपो
निरोधं कुरुते त्वसौ।
उदारस्तु न विक्षिप्तः साध्याभावात्करोति किम्॥१८- १७॥ |
|
He
by whom inner distraction is seen may put an end to it, but the noble one is
not distracted. When there is nothing to achieve, what is he to do? ॥17॥
|
धीरो लोकविपर्यस्तो
वर्तमानोऽपि लोकवत्।
नो समाधिं न विक्षेपं न लोपं स्वस्य पश्यति॥१८- १८॥ |
|
The
wise man, unlike the worldly man, does not see inner stillness, distraction
or fault in himself, even when living like a worldly man. ॥18॥
|
भावाभावविहीनो यस्तृप्तो
निर्वासनो बुधः।
नैव किंचित्कृतं तेन लोकदृष्ट्या विकुर्वता॥१८- १९॥ |
|
Nothing
is done by him who is free from being and non-being, who is contented,
desireless and wise, even if in the world's eyes he does act. ॥19॥
|
प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा
नैव धीरस्य दुर्ग्रहः।
यदा यत्कर्तुमायाति तत्कृत्वा तिष्ठते सुखम्॥१८- २०॥ |
|
The
wise man who just goes on doing what presents itself for him to do,
encounters no difficulty in either activity or inactivity. ॥20॥
|
निर्वासनो निरालंबः
स्वच्छन्दो मुक्तबन्धनः।
क्षिप्तः संस्कारवातेन चेष्टते शुष्कपर्णवत्॥१८- २१॥ |
|
He
who is desireless, self-reliant, independent and free of bonds functions like
a dead leaf blown about by the wind of causality. ॥21॥
|
असंसारस्य तु क्वापि न
हर्षो न विषादिता।
स शीतलहमना नित्यं विदेह इव राजये॥१८- २२॥ |
|
There
is neither joy nor sorrow for one who has transcended samsara. He lives
always with a peaceful mind and as if without a body. ॥22॥
|
कुत्रापि न जिहासास्ति नाशो
वापि न कुत्रचित्।
आत्मारामस्य धीरस्य शीतलाच्छतरात्मनः॥१८- २३॥ |
|
He
whose joy is in himself, and who is peaceful and pure within has no desire
for renunciation or sense of loss in anything. ॥23॥
|
प्रकृत्या शून्यचित्तस्य
कुर्वतोऽस्य यदृच्छया।
प्राकृतस्येव धीरस्य न मानो नावमानता॥१८- २४॥ |
|
For
the man with a naturally empty mind, doing just as he pleases, there is no
such thing as pride or false humility, as there is for the natural man. ॥24॥
|
कृतं देहेन कर्मेदं न मया
शुद्धरूपिणा।
इति चिन्तानुरोधी यः कुर्वन्नपि करोति न॥१८- २५॥ |
|
This
action was done by the body but not by me'. The pure-natured person thinking
like this, is not acting even when acting. ॥25॥
|
अतद्वादीव कुरुते न भवेदपि
बालिशः।
जीवन्मुक्तः सुखी श्रीमान् संसरन्नपि शोभते॥१८- २६॥ |
|
He
who acts without being able to say why, but not because he is a fool, he is
one liberated while still alive, happy and blessed. He thrives even in
samsara. ॥26॥
|
नाविचारसुश्रान्तो धीरो
विश्रान्तिमागतः।
न कल्पते न जाति न शृणोति न पश्यति॥१८- २७॥ |
|
He
who has had enough of endless considerations and has attained to peace, does
not think, know, hear or see. ॥27॥
|
असमाधेरविक्षेपान् न
मुमुक्षुर्न चेतरः।
निश्चित्य कल्पितं पश्यन् ब्रह्मैवास्ते महाशयः॥१८- २८॥ |
|
He
who is beyond mental stillness and distraction, does not desire either
liberation or anything else. Recognising that things are just constructions
of the imagination, that great soul lives as God here and now. ॥28॥
|
यस्यान्तः स्यादहंकारो न
करोति करोति सः।
निरहंकारधीरेण न किंचिदकृतं कृतम्॥१८- २९॥ |
|
He
who feels responsibility within, acts even when not acting, but there is no
sense of done or undone for the wise man who is free from the sense of
responsibility. ॥29॥
|
नोद्विग्नं न च
सन्तुष्टमकर्तृ स्पन्दवर्जितं।
निराशं गतसन्देहं चित्तं मुक्तस्य राजते॥१८- ३०॥ |
|
The
mind of the liberated man is not upset or pleased. It shines unmoving,
desireless, and free from doubt. ॥30॥
|
निर्ध्यातुं चेष्टितुं वापि
यच्चित्तं न प्रवर्तते।
निर्निमित्तमिदं किंतु निर्ध्यायेति विचेष्टते॥१८- ३१॥ |
|
He
whose mind does not set out to meditate or act, meditates and acts without an
object. ॥31॥
|
तत्त्वं यथार्थमाकर्ण्य
मन्दः प्राप्नोति मूढतां।
अथवा याति संकोचममूढः कोऽपि मूढवत्॥१८- ३२॥ |
|
A
stupid man is bewildered when he hears the real truth, while even a clever
man is humbled by it just like the fool. ॥32॥
|
एकाग्रता निरोधो वा
मूढैरभ्यस्यते भृशं।
धीराः कृत्यं न पश्यन्ति सुप्तवत्स्वपदे स्थिताः॥१८- ३३॥ |
|
The
ignorant make a great effort to practise one-pointedness and the stopping of
thought, while the wise see nothing to be done and remain in themselves like
those asleep. ॥33॥
|
अप्रयत्नात् प्रयत्नाद् वा
मूढो नाप्नोति निर्वृतिं।
तत्त्वनिश्चयमात्रेण प्राज्ञो भवति निर्वृतः॥१८- ३४॥ |
|
The
stupid does not attain cessation whether he acts or abandons action, while
the wise man find peace within simply by knowing the truth. ॥34॥
|
शुद्धं बुद्धं प्रियं पूर्णं
निष्प्रपंचं निरामयं।
आत्मानं तं न जानन्ति तत्राभ्यासपरा जनाः॥१८- ३५॥ |
|
People
cannot come to know themselves by practices - pure awareness, clear,
complete, beyond multiplicity and faultless though they are. ॥35॥
|
नाप्नोति कर्मणा मोक्षं
विमूढोऽभ्यासरूपिणा।
धन्यो विज्ञानमात्रेण मुक्तस्तिष्ठत्यविक्रियः॥१८- ३६॥ |
|
The
stupid does not achieve liberation even through regular practice, but the
fortunate remains free and actionless simply by discrimination. ॥36॥
|
मूढो नाप्नोति तद् ब्रह्म
यतो भवितुमिच्छति।
अनिच्छन्नपि धीरो हि परब्रह्मस्वरूपभाक्॥१८- ३७॥ |
|
The
stupid does not attain Godhead because he wants to become it, while the wise
man enjoys the Supreme Godhead without even wanting it. ॥37॥
|
निराधारा ग्रहव्यग्रा मूढाः
संसारपोषकाः।
एतस्यानर्थमूलस्य मूलच्छेदः कृतो बुधैः॥१८- ३८॥ |
|
Even when living without any support and eager
for achievement, the stupid are still nourishing samsara, while the wise have
cut at the very root of its unhappiness. ॥38॥
|
न शान्तिं लभते मूढो यतः
शमितुमिच्छति।
धीरस्तत्त्वं विनिश्चित्य सर्वदा शान्तमानसः॥१८- ३९॥ |
|
The
stupid does not find peace because he is wanting it, while the wise
discriminating the truth is always peaceful minded. ॥39॥
|
क्वात्मनो दर्शनं तस्य यद्
दृष्टमवलंबते।
धीरास्तं तं न पश्यन्ति पश्यन्त्यात्मानमव्ययम्॥१८- ४०॥ |
|
How
can there be self knowledge for him whose knowledge depends on what he sees.
The wise do not see this and that, but see themselves as unending. ॥40॥
|
क्व निरोधो विमूढस्य यो
निर्बन्धं करोति वै।
स्वारामस्यैव धीरस्य सर्वदासावकृत्रिमः॥१८- ४१॥ |
|
How can there be cessation of thought for the
misguided who is striving for it. Yet it is there always naturally for the
wise man delighted in himself. ॥41॥
|
भावस्य भावकः कश्चिन् न
किंचिद् भावकोपरः।
उभयाभावकः कश्चिद् एवमेव निराकुलः॥१८- ४२॥ |
|
Some
think that something exists, and others that nothing does. Rare is the man
who does not think either, and is thereby free from distraction. ॥42॥
|
शुद्धमद्वयमात्मानं
भावयन्ति कुबुद्धयः।
न तु जानन्ति संमोहाद्यावज्जीवमनिर्वृताः॥१८- ४३॥ |
|
Those
of weak intelligence think of themselves as pure nonduality, but because of
their delusion do not know this, and remain unfulfilled all their lives. ॥43॥
|
मुमुक्षोर्बुद्धिरालंबमन्तरेण
न विद्यते।
निरालंबैव निष्कामा बुद्धिर्मुक्तस्य सर्वदा॥१८- ४४॥ |
|
The
mind of the man seeking liberation can find no resting place within, but the
mind of the liberated man is always free from desire by the very fact of
being without a resting place. ॥44॥
|
विषयद्वीपिनो वीक्ष्य
चकिताः शरणार्थिनः।
विशन्ति झटिति क्रोडं निरोधैकाग्रसिद्धये॥१८- ४५॥ |
|
Seeing
the tigers of the senses, the frightened refuge-seekers at once enter the
cave in search of cessation of thought and one-pointedness. ॥45॥
|
निर्वासनं हरिं दृष्ट्वा
तूष्णीं विषयदन्तिनः।
पलायन्ते न शक्तास्ते सेवन्ते कृतचाटवः॥१८- ४६॥ |
|
Seeing
the desireless lion the elephants of the senses silently run away, or, if
they cannot, serve him like courtiers. ॥46॥
|
न मुक्तिकारिकां धत्ते
निःशङ्को युक्तमानसः।
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्नश्नन्नास्ते यथासुखम्॥१८- ४७॥ |
|
The man who is free from doubts and whose mind is
free does not bother about means of liberation. Whether seeing, hearing,
feeling smelling or tasting, he lives at ease. ॥47॥
|
वस्तुश्रवणमात्रेण
शुद्धबुद्धिर्निराकुलः।
नैवाचारमनाचारमौदास्यं वा प्रपश्यति॥१८- ४८॥ |
|
He
whose mind is pure and undistracted from the simple hearing of the Truth sees
neither something to do nor something to avoid nor a cause for indifference. ॥48॥
|
यदा यत्कर्तुमायाति तदा
तत्कुरुते ऋजुः।
शुभं वाप्यशुभं वापि तस्य चेष्टा हि बालवत्॥१८- ४९॥ |
|
The
straightforward person does whatever arrives to be done, good or bad, for his
actions are like those of a child. ॥49॥
|
स्वातंत्र्यात्सुखमाप्नोति
स्वातंत्र्याल्लभते परं।
स्वातंत्र्यान्निर्वृतिं गच्छेत्स्वातंत्र्यात् परमं पदम्॥१८- ५०॥ |
|
By
inner freedom one attains happiness, by inner freedom one reaches the
Supreme, by inner freedom one comes to absence of thought, by inner freedom
to the Ultimate State. ॥50॥
|
अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं
स्वात्मनो मन्यते यदा।
तदा क्षीणा भवन्त्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः॥१८- ५१॥ |
|
When
one sees oneself as neither the doer nor the reaper of the consequences, then
all mind waves come to an end. ॥51॥
|
उच्छृंखलाप्यकृतिका
स्थितिर्धीरस्य राजते।
न तु सस्पृहचित्तस्य शान्तिर्मूढस्य कृत्रिमा॥१८- ५२॥ |
|
The
spontaneous unassumed behaviour of the wise is noteworthy, but not the
deliberate, intentional stillness of the fool. ॥52॥
|
विलसन्ति महाभोगैर्विशन्ति
गिरिगह्वरान्।
निरस्तकल्पना धीरा अबद्धा मुक्तबुद्धयः॥१८- ५३॥ |
|
The
wise who are rid of imagination, unbound and with unfettered awareness may
enjoy themselves in the midst of many goods, or alternatively go off to mountain
caves. ॥53॥
|
श्रोत्रियं देवतां
तीर्थमङ्गनां भूपतिं प्रियं।
दृष्ट्वा संपूज्य धीरस्य न कापि हृदि वासना॥१८- ५४॥ |
|
There
is no attachment in the heart of a wise man whether he sees or pays homage to
a learned brahmin, a celestial being, a holy place, a woman, a king or a
friend. ॥54॥
|
भृत्यैः पुत्रैः कलत्रैश्च
दौहित्रैश्चापि गोत्रजैः।
विहस्य धिक्कृतो योगी न याति विकृतिं मनाक्॥१८- ५५॥ |
|
A
yogi is not in the least put out even when humiliated by the ridicule of
servants, sons, wives, grandchildren or other relatives. ॥55॥
|
सन्तुष्टोऽपि न सन्तुष्टः
खिन्नोऽपि न च खिद्यते।
तस्याश्चर्यदशां तां तां तादृशा एव जानते॥१८- ५६॥ |
|
Even
when pleased he is not pleased, not suffering even when in pain. Only those
like him can know the wonderful state of such a man. ॥56॥
|
कर्तव्यतैव संसारो न तां
पश्यन्ति सूरयः।
शून्याकारा निराकारा निर्विकारा निरामयाः॥१८- ५७॥ |
|
It
is the sense of responsibility which is samsara. The wise who are of the form
of emptiness, formless, unchanging and spotless see no such thing. ॥57॥
|
अकुर्वन्नपि संक्षोभाद्
व्यग्रः सर्वत्र मूढधीः।
कुर्वन्नपि तु कृत्यानि कुशलो हि निराकुलः॥१८- ५८॥ |
|
Even
when doing nothing the fool is agitated by restlessness, while a skilful man
remains undisturbed even when doing what there is to do. ॥58॥
|
सुखमास्ते सुखं शेते
सुखमायाति याति च।
सुखं वक्ति सुखं भुंक्ते व्यवहारेऽपि शान्तधीः॥१८- ५९॥ |
|
Happy
he stands, happy he sits, happy sleeps and happy he comes and goes. Happy he
speaks, and happy he eats. Such is the life of a man at peace. ॥59॥
|
स्वभावाद्यस्य
नैवार्तिर्लोकवद् व्यवहारिणः।
महाहृद इवाक्षोभ्यो गतक्लेशः स शोभते॥१८- ६०॥ |
|
He
who of his very nature feels no unhappiness in his daily life like worldly
people, remains undisturbed like a great lake, all sorrow gone. ॥60॥
|
निवृत्तिरपि मूढस्य
प्रवृत्ति रुपजायते।
प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिफलभागिनी॥१८- ६१॥ |
|
Even
abstention from action leads to action in a fool, while even the action of
the wise man brings the fruits of inaction. ॥61॥
|
परिग्रहेषु वैराग्यं प्रायो
मूढस्य दृश्यते।
देहे विगलिताशस्य क्व रागः क्व विरागता॥१८- ६२॥ |
|
A
fool often shows aversion towards his belongings, but for him whose
attachment to the body has dropped away, there is neither attachment nor
aversion. ॥62॥
|
भावनाभावनासक्ता
दृष्टिर्मूढस्य सर्वदा।
भाव्यभावनया सा तु स्वस्थस्यादृष्टिरूपिणी॥१८- ६३॥ |
|
The
mind of the fool is always caught in an opinion about becoming or avoiding
something, but the wise man's nature is to have no opinions about becoming
and avoiding. ॥63॥
|
सर्वारंभेषु निष्कामो
यश्चरेद् बालवन् मुनिः।
न लेपस्तस्य शुद्धस्य क्रियमाणोऽपि कर्मणि॥१८- ६४॥ |
|
For
the seer who behaves like a child, without desire in all actions, there is no
attachment for such a pure one even in the work he does. ॥64॥
|
स एव धन्य आत्मज्ञः
सर्वभावेषु यः समः।
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्न् अश्नन्निस्तर्षमानसः॥१८- ६५॥ |
|
Blessed
is he who knows himself and is the same in all states, with a mind free from
craving whether he is seeing, hearing, feeling, smelling or tasting. ॥65॥
|
क्व संसारः क्व चाभासः क्व
साध्यं क्व च साधनं।
आकाशस्येव धीरस्य निर्विकल्पस्य सर्वदा॥१८- ६६॥ |
|
There
is no man subject to samsara, sense of individuality, goal or means to the
goal for the wise man who is always free from imaginations, and unchanging as
space. ॥66॥
|
स जयत्यर्थसंन्यासी
पूर्णस्वरसविग्रहः।
अकृत्रिमोऽनवच्छिन्ने समाधिर्यस्य वर्तते॥१८- ६७॥ |
|
Glorious
is he who has abandoned all goals and is the incarnation of satisfaction, his
very nature, and whose inner focus on the Unconditioned is quite spontaneous.
॥67॥
|
बहुनात्र किमुक्तेन
ज्ञाततत्त्वो महाशयः।
भोगमोक्षनिराकांक्षी सदा सर्वत्र नीरसः॥१८- ६८॥ |
|
In
brief, the great-souled man who has come to know the Truth is without desire
for either pleasure or liberation, and is always and everywhere free from
attachment. ॥68॥
|
महदादि जगद्द्वैतं
नाममात्रविजृंभितं।
विहाय शुद्धबोधस्य किं कृत्यमवशिष्यते॥१८- ६९॥ |
|
What
remains to be done by the man who is pure awareness and has abandoned
everything that can be expressed in words from the highest heaven to the
earth itself? ॥69॥
|
भ्रमभृतमिदं सर्वं
किंचिन्नास्तीति निश्चयी।
अलक्ष्यस्फुरणः शुद्धः स्वभावेनैव शाम्यति॥१८- ७०॥ |
|
The
pure man who has experienced the Indescribable attains peace by his own
nature, realising that all this is nothing but illusion, and that nothing is.
॥70॥
|
शुद्धस्फुरणरूपस्य
दृश्यभावमपश्यतः।
क्व विधिः क्व वैराग्यं क्व त्यागः क्व शमोऽपि वा॥१८- ७१॥ |
|
There
are no rules, dispassion, renunciation or meditation for one who is pure
receptivity by nature, and admits no knowable form of being? ॥71॥
|
स्फुरतोऽनन्तरूपेण प्रकृतिं
च न पश्यतः।
क्व बन्धः क्व च वा मोक्षः क्व हर्षः क्व विषादिता॥१८- ७२॥ |
|
For
him who shines with the radiance of Infinity and is not subject to natural
causality there is neither bondage, liberation, pleasure nor pain. ॥72॥
|
बुद्धिपर्यन्तसंसारे
मायामात्रं विवर्तते।
निर्ममो निरहंकारो निष्कामः शोभते बुधः॥१८- ७३॥ |
|
Pure illusion reigns in samsara which will
continue until self realisation, but the enlightened man lives in the beauty
of freedom from me and mine, from the sense of responsibility and from any
attachment. ॥73॥
|
अक्षयं गतसन्तापमात्मानं
पश्यतो मुनेः।
क्व विद्या च क्व वा विश्वं क्व देहोऽहं ममेति वा॥१८- ७४॥ |
|
For
the seer who knows himself as imperishable and beyond pain there is neither
knowledge, a world nor the sense that I am the body or the body mine. ॥74॥
|
निरोधादीनि कर्माणि जहाति
जडधीर्यदि।
मनोरथान् प्रलापांश्च कर्तुमाप्नोत्यतत्क्षणात्॥१८- ७५॥ |
|
No
sooner does a man of low intelligence give up activities like the elimination
of thought than he falls into mental chariot racing and babble. ॥75॥
|
मन्दः श्रुत्वापि तद्वस्तु
न जहाति विमूढतां।
निर्विकल्पो बहिर्यत्नादन्तर्विषयलालसः॥१८- ७६॥ |
|
A
fool does not get rid of his stupidity even on hearing the truth. He may
appear outwardly free from imaginations, but inside he is hankering after the
senses still. ॥76॥
|
ज्ञानाद् गलितकर्मा यो
लोकदृष्ट्यापि कर्मकृत्।
नाप्नोत्यवसरं कर्मं वक्तुमेव न किंचन॥१८- ७७॥ |
|
Though
in the eyes of the world he is active, the man who has shed action through
knowledge finds no means of doing or speaking anything. ॥77॥
|
क्व तमः क्व प्रकाशो वा
हानं क्व च न किंचन।
निर्विकारस्य धीरस्य निरातंकस्य सर्वदा॥१८- ७८॥ |
|
For
the wise man who is always unchanging and fearless there is neither darkness
nor light nor destruction, nor anything. ॥78॥
|
क्व धैर्यं क्व विवेकित्वं
क्व निरातंकतापि वा।
अनिर्वाच्यस्वभावस्य निःस्वभावस्य योगिनः॥१८- ७९॥ |
|
There
is neither fortitude, prudence nor courage for the yogi whose nature is
beyond description and free of individuality. ॥79॥
|
न स्वर्गो नैव नरको
जीवन्मुक्तिर्न चैव हि।
बहुनात्र किमुक्तेन योगदृष्ट्या न किंचन॥१८- ८०॥ |
|
There
is neither heaven nor hell nor even liberation during life. In a nutshell, in
the sight of the seer nothing exists at all. ॥80॥
|
नैव प्रार्थयते लाभं
नालाभेनानुशोचति।
धीरस्य शीतलं चित्तममृतेनैव पूरितम्॥१८- ८१॥ |
|
He
neither longs for possessions nor grieves at their absence. The calm mind of
the sage is full of the nectar of immortality. ॥81॥
|
न शान्तं स्तौति निष्कामो न
दुष्टमपि निन्दति।
समदुःखसुखस्तृप्तः किंचित् कृत्यं न पश्यति॥१८- ८२॥ |
|
The
dispassionate does not praise the good or blame the wicked. Content and equal
in pain and pleasure, he sees nothing that needs doing. ॥82॥
|
धीरो न द्वेष्टि संसारमात्मानं
न दिदृक्षति।
हर्षामर्षविनिर्मुक्तो न मृतो न च जीवति॥१८- ८३॥ |
|
The
wise man does not dislike samsara or seek to know himself. Free from pleasure
and impatience, he is not dead and he is not alive. ॥83॥
|
निःस्नेहः पुत्रदारादौ
निष्कामो विषयेषु च।
निश्चिन्तः स्वशरीरेऽपि निराशः शोभते बुधः॥१८- ८४॥ |
|
The
wise man stands out by being free from anticipation, without attachment to
such things as children or wives, free from desire for the senses, and not
even concerned about his own body. ॥84॥
|
तुष्टिः सर्वत्र धीरस्य
यथापतितवर्तिनः।
स्वच्छन्दं चरतो देशान् यत्रस्तमितशायिनः॥१८- ८५॥ |
|
Peace
is everywhere for the wise man who lives on whatever happens to come to him,
going to wherever he feels like, and sleeping wherever the sun happens to
set. ॥85॥
|
पततूदेतु वा देहो नास्य
चिन्ता महात्मनः।
स्वभावभूमिविश्रान्तिविस्मृताशेषसंसृतेः॥१८- ८६॥ |
|
Let
his body rise or fall. The great souled one gives it no thought, having
forgotten all about samsara in coming to rest on the ground of his true
nature. ॥86॥
|
अकिंचनः कामचारो निर्द्वन्द्वश्छिन्नसंशयः।
असक्तः सर्वभावेषु केवलो रमते बुधः॥१८- ८७॥ |
|
The
wise man has the joy of being complete in himself and without possessions,
acting as he pleases, free from duality and rid of doubts, and without
attachment to any creature. ॥87॥
|
निर्ममः शोभते धीरः
समलोष्टाश्मकांचनः।
सुभिन्नहृदयग्रन्थिर्विनिर्धूतरजस्तमः॥१८- ८८॥ |
|
The
wise man excels in being without the sense of 'me'. Earth, a stone or gold
are the same to him. The knots of his heart have been rent asunder, and he is
freed from greed and blindness. ॥88॥
|
सर्वत्रानवधानस्य न किंचिद्
वासना हृदि।
मुक्तात्मनो वितृप्तस्य तुलना केन जायते॥१८- ८९॥ |
|
Who
can compare with that contented, liberated soul who pays no regard to
anything and has no desire left in his heart? ॥89॥
|
जानन्नपि न जानाति पश्यन्नपि
न पश्यति।
ब्रुवन्न् अपि न च ब्रूते कोऽन्यो निर्वासनादृते॥१८- ९०॥ |
|
Who
but the upright man without desire knows without knowing, sees without seeing
and speaks without speaking? ॥90॥
|
भिक्षुर्वा भूपतिर्वापि यो
निष्कामः स शोभते।
भावेषु गलिता यस्य शोभनाशोभना मतिः॥१८- ९१॥ |
|
Beggar
or king, he excels who is without desire, and whose opinion of things is rid
of 'good' and 'bad'. ॥91॥
|
क्व स्वाच्छन्द्यं क्व
संकोचः क्व वा तत्त्वविनिश्चयः।
निर्व्याजार्जवभूतस्य चरितार्थस्य योगिनः॥१८- ९२॥ |
|
There
is neither dissolute behaviour nor virtue, nor even discrimination of the
truth for the sage who has reached the goal and is the very embodiment of
guileless sincerity. ॥92॥
|
आत्मविश्रान्तितृप्तेन
निराशेन गतार्तिना।
अन्तर्यदनुभूयेत तत् कथं कस्य कथ्यते॥१८- ९३॥ |
|
How
can one describe what is experienced within by one desireless and free from
pain, and content to rest in himself - and of whom? ॥93॥
|
सुप्तोऽपि न सुषुप्तौ च
स्वप्नेऽपि शयितो न च।
जागरेऽपि न जागर्ति धीरस्तृप्तः पदे पदे॥१८- ९४॥ |
|
The
wise man who is contented in all circumstances is not asleep even in deep
sleep, not sleeping in a dream, nor waking when he is awake. ॥94॥
|
ज्ञः सचिन्तोऽपि निश्चिन्तः
सेन्द्रियोऽपि निरिन्द्रियः।
सुबुद्धिरपि निर्बुद्धिः साहंकारोऽनहङ्कृतिः॥१८- ९५॥ |
|
The
seer is without thoughts even when thinking, without senses among the senses,
without understanding even in understanding and without a sense of
responsibility even in the ego. ॥95॥
|
न सुखी न च वा दुःखी न
विरक्तो न संगवान्।
न मुमुक्षुर्न वा मुक्ता न किंचिन्न्न च किंचन॥१८- ९६॥ |
|
Neither
happy nor unhappy, neither detached nor attached, neither seeking liberation
nor liberated, he is neither something nor nothing. ॥96॥
|
विक्षेपेऽपि न विक्षिप्तः
समाधौ न समाधिमान्।
जाड्येऽपि न जडो धन्यः पाण्डित्येऽपि न पण्डितः॥१८- ९७॥ |
|
Not
distracted in distraction, in mental stillness not poised, in stupidity not
stupid, that blessed one is not even wise in his wisdom. ॥97॥
|
मुक्तो यथास्थितिस्वस्थः
कृतकर्तव्यनिर्वृतः।
समः सर्वत्र वैतृष्ण्यान्न स्मरत्यकृतं कृतम्॥१८- ९८॥ |
|
The
liberated man is self-possessed in all circumstances and free from the idea
of 'done' and 'still to do'. He is the same wherever he is and without greed.
He does not dwell on what he has done or not done. ॥98॥
|
न प्रीयते वन्द्यमानो
निन्द्यमानो न कुप्यति।
नैवोद्विजति मरणे जीवने नाभिनन्दति॥१८- ९९॥ |
|
He
is not pleased when praised nor upset when blamed. He is not afraid of death
nor attached to life. ॥99॥
|
न धावति जनाकीर्णं नारण्यं
उपशान्तधीः।
यथातथा यत्रतत्र सम एवावतिष्ठते॥१८- १००॥ |
|
A
man at peace does not run off to popular resorts or to the forest. Whatever
and wherever, he remains the same. ॥100॥
|
Nineteenth Chapter / नवदश अध्याय
अष्टावक्र गीता(मूल संस्कृत)
|
अष्टावक्र गीता(हिंदी भावानुवाद)
|
Ashtavakra Gita (English)
|
जनक उवाच-
तत्त्वविज्ञानसन्दंशमादाय हृदयोदरात्। नानाविधपरामर्शशल्योद्धारः कृतो मया॥१९- १॥ |
राजा जनक कहते हैं -
तत्त्व-विज्ञान की चिमटी द्वारा विभिन्न प्रकार के सुझावों रूपी काँटों को मेरे द्वारा
हृदय के आन्तरिक भागों से निकाला गया॥१॥
|
King
Janak says - Using the hook of self-knowledge, thorns of various opinions
have extracted out from inside of heart by me. ॥1॥
|
क्व धर्मः क्व च वा कामः
क्व चार्थः क्व विवेकिता।
क्व द्वैतं क्व च वाऽद्वैतं स्वमहिम्नि स्थितस्य मे॥१९- २॥ |
अपनी महिमा में स्थित मेरे
लिए क्या धर्म है और क्या काम है, क्या
अर्थ है और क्या विवेक है, क्या
द्वैत है और क्या अद्वैत है?॥२॥
|
There
is no righteousness and duty, no objective or discretion, no duality or
non-duality for me, who is established in Self. ॥2॥
|
क्व भूतं क्व भविष्यद् वा
वर्तमानमपि क्व वा।
क्व देशः क्व च वा नित्यं स्वमहिम्नि स्थितस्य मे॥१९- ३॥ |
अपनी महिमा में स्थित मेरे
लिए क्या अतीत है और क्या भविष्य है और क्या वर्तमान ही है, क्या देश है और क्या काल है? ॥३॥
|
There
is no past, future or present, there is no space or time for me , who is
established in Self. ॥3॥
|
क्व चात्मा क्व च वानात्मा
क्व शुभं क्वाशुभं तथा।
क्व चिन्ता क्व च वाचिन्ता स्वमहिम्नि स्थितस्य मे॥१९- ४॥ |
अपनी महिमा में स्थित मेरे लिए क्या
आत्मा है और क्या अनात्मा है तथा क्या शुभ और क्या अशुभ है, क्या विचारयुक्त होना है और क्या निर्विचार होना है?॥४॥
|
There is no self or non-self, nothing auspicious
or evil, no thought or absence of them for me, who is established in Self. ॥4॥
|
क्व स्वप्नः क्व
सुषुप्तिर्वा क्व च जागरणं तथा।
क्व तुरियं भयं वापि स्वमहिम्नि स्थितस्य मे॥१९- ५॥ |
अपनी महिमा में स्थित मेरे
लिए क्या स्वप्न है और क्या सुषुप्ति तथा क्या जागरण है और क्या तुरीय अवस्था है
अथवा क्या भय ही है?॥५॥
|
There
are no states as dreams or sleep or waking. There is no fourth state 'Turiya'
beyond these, and no fear for me , who is established in Self. ॥5॥
|
क्व दूरं क्व समीपं वा
बाह्यं क्वाभ्यन्तरं क्व वा।
क्व स्थूलं क्व च वा सूक्ष्मं स्वमहिम्नि स्थितस्य मे॥१९- ६॥ |
अपनी महिमा में स्थित मेरे
लिए क्या दूर है और क्या पास है तथा क्या बाह्य है और क्या आतंरिक है, क्या स्थूल है और क्या सूक्ष्म है?॥६॥
|
There
is nothing distant or near, nothing within or without, nothing large or
subtle for me, who is established in Self. ॥6॥
|
क्व मृत्युर्जीवितं वा क्व
लोकाः क्वास्य क्व लौकिकं।
क्व लयः क्व समाधिर्वा स्वमहिम्नि स्थितस्य मे॥१९- ७॥ |
अपनी महिमा में स्थित मेरे
लिए क्या मृत्यु है और क्या जीवन है तथा क्या लौकिक है और क्या पारलौकिक है, क्या लय है और क्या समाधि है?॥७॥
|
There
is no life or death, not this world or any outer world, no annihilation or
meditative state for me, who is established in Self. ॥7॥
|
अलं त्रिवर्गकथया योगस्य
कथयाप्यलं।
अलं विज्ञानकथया विश्रान्तस्य ममात्मनि॥१९- ८॥ |
अपनी आत्मा में नित्य स्थित
मेरे लिए जीवन के तीन उद्देश्य निरर्थक हैं, योग पर चर्चा अनावश्यक है और विज्ञानं का वर्णन अनावश्यक
है॥८॥
|
For
me who has taken eternal refuge in Self, discussion on three goals of life is
useless, discussion on yoga is useless, discussion on knowledge is useless. ॥8॥
|
Twentieth Chapter / विंश अध्याय
अष्टावक्र गीता(मूल संस्कृत)
|
अष्टावक्र गीता(हिंदी भावानुवाद)
|
Ashtavakra Gita (English)
|
जनक उवाच -
क्व भूतानि क्व देहो वा क्वेन्द्रियाणि क्व वा मनः। क्व शून्यं क्व च नैराश्यं मत्स्वरूपे निरंजने॥२०-१॥ |
राजा जनक कहते हैं - मेरे
निष्कलंक स्वरुप में पाँच महाभूत कहाँ हैं या शरीर कहाँ है और इन्द्रियाँ या मन कहाँ हैं, शून्य कहाँ है और निराशा कहाँ है॥१॥
|
King
Janak says: In stainless Self, there are no five matter-elements or body, no
sense organs or mind, no emptiness or despair.॥1॥
|
क्व शास्त्रं
क्वात्मविज्ञानं क्व वा निर्विषयं मनः।
क्व तृप्तिः क्व वितृष्णत्वं गतद्वन्द्वस्य मे सदा॥२०- २॥ |
सदा सभी प्रकार के
द्वंद्वों से रहित मेरे लिए क्या शास्त्र हैं और क्या आत्म-ज्ञान अथवा क्या विषय रहित मन
ही है, क्या प्रसन्नता है या क्या संतोष है॥२॥
|
For
me who is ever free from dualism, there are no scriptures or self-knowledge,
no attached mind, no satisfaction or desire-lessness. ॥2॥
|
क्व विद्या क्व च वाविद्या
क्वाहं क्वेदं मम क्व वा।
क्व बन्ध क्व च वा मोक्षः स्वरूपस्य क्व रूपिता॥२०- ३॥ |
क्या विद्या है या क्या
अविद्या, क्या मैं है या क्या वह है और क्या
मेरा है, क्या बंधन है और क्या मोक्ष है या स्वरुप का क्या लक्षण है ॥३॥
|
There
is no knowledge or ignorance, no 'me', 'this' or 'mine', no bondage or liberation,
and no characteristic of self-nature.॥3॥
|
क्व प्रारब्धानि कर्माणि
जीवन्मुक्तिरपि क्व वा।
क्व तद् विदेहकैवल्यं निर्विशेषस्य सर्वदा॥२०- ४॥ |
क्या प्रारब्ध कर्म हैं और
क्या जीवन मुक्ति है,
सर्वदा विशेषता(परिवर्तन)
से रहित मुझमें क्या शरीरहीन कैवल्य है ॥४॥
|
In
unchanging me, there is no fateful actions or liberation during life and no
bodiless enlightenment.॥4॥
|
क्व कर्ता क्व च वा भोक्ता
निष्क्रियं स्फुरणं क्व वा।
क्वापरोक्षं फलं वा क्व निःस्वभावस्य मे सदा॥२०- ५॥ |
सदा स्वभाव से रहित मुझमें
कौन कर्ता है और कौन भोक्ता, क्या
निष्क्रियता है
और क्या क्रियाशीलता,
क्या प्रत्यक्ष है और क्या
अप्रत्यक्ष ॥५॥
|
Without
a nature, there is no doer or reaper of actions, no inaction or action,
nothing visible or invisible.॥5॥
|
क्व लोकं क्व मुमुक्षुर्वा
क्व योगी ज्ञानवान् क्व वा।
क्व बद्धः क्व च वा मुक्तः स्वस्वरूपेऽहमद्वये॥२०- ६॥ |
अपने अद्वय (दूसरे से रहित)
स्वरुप में स्थित मेरे लिए
क्या संसार है और क्या मुक्ति
की इच्छा, कौन योगी है और कौन ज्ञानी, कौन बंधन में है और कौन मुक्त ॥६॥
|
Established
as non-dual reality, there is no world or desire for liberation, no yogi or
seer, no-one bound or liberated.॥6॥
|
क्व सृष्टिः क्व च संहारः
क्व साध्यं क्व च साधनं।
क्व साधकः क्व सिद्धिर्वा स्वस्वरूपेऽहमद्वये॥२०- ७॥ |
अपने अद्वय (दूसरे से रहित)
स्वरुप में स्थित मेरे लिए क्या सृष्टि है और क्या प्रलय, क्या
साध्य है और क्या साधन, कौन
साधक है और क्या सिद्धि है ॥७॥
|
Established
as non-dual reality, there is no creation or annihilation, what is to be
achieved or what are the means, who is seeker and what is achievement.॥7॥
|
क्व प्रमाता प्रमाणं वा क्व
प्रमेयं क्व च प्रमा।
क्व किंचित् क्व न किंचिद् वा सर्वदा विमलस्य मे॥२०- ८॥ |
विशुद्ध मुझमें कौन ज्ञाता
है और क्या प्रमाण (साक्ष्य) है, क्या
ज्ञेय है और क्या ज्ञान, क्या
स्वल्प है और क्या सर्व ॥८॥
|
There
is no knower or evidence, nothing knowable or knowledge, nothing less or
non-less in forever pure Self.॥8॥
|
क्व विक्षेपः क्व
चैकाग्र्यं क्व निर्बोधः क्व मूढता।
क्व हर्षः क्व विषादो वा सर्वदा निष्क्रियस्य मे॥२०- ९॥ |
सदा निष्क्रिय मुझमें क्या
अन्यमनस्कता है और क्या एकाग्रता, क्या
विवेक है और क्या विवेकहीनता, क्या
हर्ष है और क्या विषाद ॥९॥
|
There
is no distraction or focus, no right discrimination or delusion, no joy or
sorrow in always action-less Self.॥9॥
|
क्व चैष व्यवहारो वा क्व च
सा परमार्थता।
क्व सुखं क्व च वा दुखं निर्विमर्शस्य मे सदा॥२०- १०॥ |
सदा विचार रहित मेरे लिए
क्या संसार है और क्या परमार्थ, क्या
सुख है और क्या दुःख ॥१०॥
|
There
is not this world or the other, no happiness or suffering for Self, who is
eternally free from thoughts.॥10॥
|
क्व माया क्व च संसारः क्व
प्रीतिर्विरतिः क्व वा।
क्व जीवः क्व च तद्ब्रह्म सर्वदा विमलस्य मे॥२०- ११॥ |
सदा विशुद्ध मेरे लिया क्या
माया है और क्या संसार, क्या
प्रीति
है और क्या विरति, क्या जीव है और क्या वह ब्रह्म ॥११॥
|
There
is no Maya or world, no attachment or detachment, no living beings or that
God for forever pure Self.॥11॥
|
क्व
प्रवृत्तिर्निर्वृत्तिर्वा क्व मुक्तिः क्व च बन्धनं।
कूटस्थनिर्विभागस्य स्वस्थस्य मम सर्वदा॥२०- १२॥ |
अचल, विभागरहित और सदा स्वयं में स्थित मेरे लिए क्या प्रवृत्ति
है और क्या निवृत्ति,
क्या मुक्ति है और क्या
बंधन ॥१२॥
|
For
me who is forever unmovable and indivisible, established in Self, there is no
tendency or renunciation, no liberation or bondage.॥12॥
|
क्वोपदेशः क्व वा शास्त्रं
क्व शिष्यः क्व च वा गुरुः।
क्व चास्ति पुरुषार्थो वा निरुपाधेः शिवस्य मे॥२०- १३॥ |
विशेषण रहित, कल्याण रूप, मेरे
लिए क्या उपदेश है और क्या शास्त्र, कौन
शिष्य है और कौन गुरु, और
क्या प्राप्त करने योग्य ही है ॥१३॥
|
There
is no sermon or scripture, no disciple or guru, nothing is to be achieved for
ever blissful and non-special Self.॥13॥
|
क्व चास्ति क्व च वा नास्ति
क्वास्ति चैकं क्व च द्वयं।
बहुनात्र किमुक्तेन किंचिन्नोत्तिष्ठते मम॥२०- १४॥ |
क्या है और क्या नहीं, क्या अद्वैत है और क्या द्वैत, अब बहुत क्या कहा जाये, मुझमें कुछ भी(भाव) नहीं उठता है॥१४॥
|
There
is no existence or non-existence, no non-duality or duality. What more is
there to say? Nothing arises out of me.॥14॥
|
Subham Bhooyat
Om Tatsat
(My humble salutations to vedicscriptures inc and Hindu dot com for the collection)