Ashtavakra
Gita
Brahma
Satyam Jagan Mithya Jeevo Brahmaiva Na Parah
Sixth chapter / षष्ठ अध्याय
अष्टावक्र गीता(मूल
संस्कृत)
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अष्टावक्र गीता (हिंदी
भावानुवाद)
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Ashtavakra Gita
(English)
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अष्टावक्र उवाच॥
आकाशवदनन्तोऽहं घटवत् प्राकृतं जगत्। इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः॥६- १॥ |
अष्टावक्र कहते हैं -
आकाश के समान मैं अनंत हूँ और यह जगत घड़े के समान महत्त्वहीन है, यह ज्ञान है। इसका न त्याग करना है और न ग्रहण, बस इसके साथ एकरूप होना है॥१॥ |
Ashtavakra
says: I am infinite like space, and this world is unimportant like a jar.
This is Knowledge. This is neither to be renounced nor to be accepted but to
be one with it.॥1॥
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महोदधिरिवाहं स प्रपंचो
वीचिसऽन्निभः।
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः॥६- २॥ |
मैं महासागर के समान हूँ और
यह दृश्यमान संसार लहरों के समान। यह ज्ञान है, इसका
न त्याग करना है और न ग्रहण बस
इसके साथ एकरूप होना है ॥२॥
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I am like
a vast ocean and the visible world is like its waves. This is Knowledge. This
is neither to be renounced nor to be accepted but to be one with it.॥2॥
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अहं स शुक्तिसङ्काशो
रूप्यवद् विश्वकल्पना।
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः॥६- ३॥ |
यह विश्व मुझमें वैसे ही कल्पित है
जैसे कि सीप में चाँदी। यह ज्ञान है, इसका न
त्याग करना है और न ग्रहण बस इसके साथ एकरूप होना है ॥३॥
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This
world is imagined in me like silver in a sea-shell. This is Knowledge. This
is neither to be renounced nor to be accepted but to be one with it.॥3॥
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अहं वा सर्वभूतेषु
सर्वभूतान्यथो मयि।
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः॥६- ४॥ |
मैं समस्त प्राणियों में हूँ जैसे सभी
प्राणी मुझमें हैं। यह ज्ञान है, इसका
न त्याग करना है और न ग्रहण बस इसके
साथ एकरूप होना है ॥४॥
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I exist
in everyone like everyone is in me. This is Knowledge. This is neither to be
renounced nor to be accepted but to be one with it.॥4॥
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Seventh Chapter / सप्तम अध्याय
अष्टावक्र गीता(मूल
संस्कृत)
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अष्टावक्र गीता (हिंदी
भावानुवाद)
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Ashtavakra Gita
(English)
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जनक उवाच -
मय्यनंतमहांभोधौ विश्वपोत इतस्ततः। भ्रमति स्वांतवातेन न ममास्त्यसहिष्णुता॥७- १॥ |
राजा जनक कहते हैं - मुझ
अनंत महासागर में विश्व रूपी जहाज अपनी अन्तः वायु से इधर - उधर घूमता है पर इससे मुझमें विक्षोभ नहीं
होता है॥१॥
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King
Janaka says: In infinite ocean of myself, world wanders here and there like a
ship driven by its own wind. But it does not create turbulence in me.॥1॥
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मय्यनंतमहांभोधौ जगद्वीचिः
स्वभावतः।
उदेतु वास्तमायातु न मे वृद्धिर्न च क्षतिः॥७- २॥ |
मुझ अनंत महासागर में विश्व
रूपी लहरें माया से स्वयं ही उदित
और अस्त होती रहती हैं, इससे
मुझमें वृद्धि या क्षति नहीं होती है॥२॥
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In
infinite ocean of myself, world rises and vanishes naturally like a wave by
'Maya'. But it does not cause any growth or damage to me.॥2॥
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मय्यनंतमहांभोधौ विश्वं नाम
विकल्पना।
अतिशांतो निराकार एतदेवाहमास्थितः॥७- ३॥ |
मुझ अनंत महासागर में विश्व
एक अवास्तविकता (स्वप्न) है, मैं
अति शांत और निराकार रूप से स्थित हूँ॥३॥
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In
infinite ocean of myself, world exists like a dream. But I exist as supremely
peaceful and formless.॥3॥
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नात्मा भावेषु नो
भावस्तत्रानन्ते निरंजने।
इत्यसक्तोऽस्पृहः शान्त एतदेवाहमास्थितः॥७- ४॥ |
उस अनंत और निरंजन अवस्था
में न 'मैं' का भाव है और न कोई अन्य भाव ही, इस प्रकार
असक्त, बिना किसी इच्छा के और शांत रूप से
मैं स्थित हूँ॥४॥
|
In that
infinite and stainless state, there remains no feeling of 'I' or any other
feeling. Like this I exist, unattached, devoid of desires and at peace.॥4॥
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अहो चिन्मात्रमेवाहं
इन्द्रजालोपमं जगत्।
अतो मम कथं कुत्र हेयोपादेयकल्पना॥७- ५॥ |
आश्चर्य मैं शुद्ध चैतन्य
हूँ और यह जगत असत्य जादू के समान है, इस प्रकार मुझमें
कहाँ और कैसे अच्छे (उपयोगी) और बुरे (अनुपयोगी) की कल्पना॥५॥
|
Surprise,
I am pure consciousness and the world is like a magic. How can there be
thoughts of useful and useless in me?॥5॥
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Eighth Chapter / अष्टम अध्याय
अष्टावक्र गीता(मूल
संस्कृत)
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अष्टावक्र गीता (हिंदी
भावानुवाद)
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Ashtavakra Gita
(English)
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अष्टावक्र उवाच -
तदा बन्धो यदा चित्तं किन्चिद् वांछति शोचति। किंचिन् मुंचति गृण्हाति किंचिद् हृष्यति कुप्यति॥८-१॥ |
श्री अष्टावक्र कहते हैं -
तब बंधन है जब मन इच्छा करता है, शोक
करता है, कुछ त्याग करता है, कुछ ग्रहण करता है, कभी प्रसन्न होता है या कभी क्रोधित होता है॥१॥
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Sri
Ashtavakra says: There is bondage, as long as mind desires something, grieves
about something, sacrifices something, accepts something, is pleased about
something or is angry about something.॥1॥
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तदा मुक्तिर्यदा चित्तं न
वांछति न शोचति।
न मुंचति न गृण्हाति न हृष्यति न कुप्यति॥८- २॥ |
तब मुक्ति है जब मन इच्छा
नहीं करता है, शोक नहीं करता है, त्याग नहीं करता है, ग्रहण
नहीं करता है, प्रसन्न नहीं होता है या क्रोधित
नहीं होता है॥२॥
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Liberation
is when mind does not desire, does not grieve, does not sacrifice, does
not accept, is not pleased or get angry.॥2॥
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तदा बन्धो यदा चित्तं सक्तं
काश्वपि दृष्टिषु।
तदा मोक्षो यदा चित्तमसक्तं सर्वदृष्टिषु॥८- ३॥ |
तब बंधन है जब मन किसी भी
दृश्यमान वस्तु में आसक्त है, तब
मुक्ति है जब मन किसी भी दृश्यमान वस्तु में आसक्तिरहित है ॥३॥
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There is
bondage when mind is attracted towards any of the visible things and
liberation is when mind is not attracted to anything visible.॥3॥
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यदा नाहं तदा मोक्षो यदाहं
बन्धनं तदा।
मत्वेति हेलया किंचिन्मा गृहाण विमुंच मा॥८- ४॥ |
जब तक 'मैं' या 'मेरा' का
भाव है
तब तक बंधन है, जब 'मैं' या 'मेरा' का भाव नहीं है तब मुक्ति है। यह जानकर न कुछ
त्याग करो और न कुछ ग्रहण ही करो ॥४॥
|
There is
bondage, as long as there is feeling of 'I' and 'my' and liberation is when
there is no feeling of 'I' and 'my'. Knowing this stay playful neither
accepting nor sacrificing anything.॥4॥
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Ninth Chapter / नवम अध्याय
अष्टावक्र गीता(मूल
संस्कृत)
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अष्टावक्र गीता (हिंदी
भावानुवाद)
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Ashtavakra Gita
(English)
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अष्टावक्र उवाच -
कृताकृते च द्वन्द्वानि कदा शान्तानि कस्य वा। एवं ज्ञात्वेह निर्वेदाद् भव त्यागपरोऽव्रती॥९- १॥ |
श्री अष्टावक्र कहते हैं -
यह कार्य करने योग्य है अथवा न करने योग्य और ऐसे ही अन्य द्वंद्व (हाँ या न रूपी संशय) कब और किसके शांत हुए
हैं। ऐसा विचार करके विरक्त (उदासीन) हो जाओ, त्यागवान
बनो, ऐसे किसी नियम का पालन न करने वाले
बनो॥१॥
|
Sri
Ashtavakra says: This is to be done and this should not be done, such
confusions have never ended for anybody.Knowing this, be indifferent (neutral),
be ascetic and don't follow such (ritualistic) rules.॥1॥
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कस्यापि तात धन्यस्य
लोकचेष्टावलोकनात्।
जीवितेच्छा बुभुक्षा च बुभुत्सोपशमं गताः॥९- २॥ |
हे पुत्र! इस संसार की
(व्यर्थ) चेष्टा को देख कर किसी धन्य पुरुष की ही जीने
की इच्छा, भोगों के उपभोग की इच्छा और भोजन की
इच्छा शांत हो पाती है॥२॥
|
O Son! Blessed and rare are those who observe the
useless efforts of others and thereby extinguish their lust for life,
luxuries and good food. ॥2॥
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अनित्यं सर्वमेवेदं
तापत्रयदूषितं।
असारं निन्दितं हेयमिति निश्चित्य शाम्यति॥९- ३॥ |
यह सब अनित्य है, तीन प्रकार के कष्टों
(दैहिक, दैविक और भौतिक) से घिरा है, सारहीन है, निंदनीय
है, त्याग करने योग्य है, ऐसा निश्चित करके ही शांति प्राप्त होती है॥३॥
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All this
is impermanent and is surrounded by the three types of pain (body, luck and
money). It is without any essence, contemptible and is to be abandoned. Only
after deciding it firmly, peace is attained. ॥3॥
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कोऽसौ कालो वयः किं वा यत्र
द्वन्द्वानि नो नृणां।
तान्युपेक्ष्य यथाप्राप्तवर्ती सिद्धिमवाप्नुयात्॥९- ४॥ |
ऐसा कौन सा समय अथवा उम्र
है जब मनुष्य के संशय नहीं रहे हैं, अतः
संशयों
की उपेक्षा करके अनायास
सिद्धि को प्राप्त करो॥४॥
|
When was
that age or time when there are no confusions for a person. So become
indifferent to your doubts and attain happiness without much effort. ॥4॥
|
नाना मतं महर्षीणां साधूनां
योगिनां तथा।
दृष्ट्वा निर्वेदमापन्नः को न शाम्यति मानवः॥९- ५॥ |
महर्षियों, साधुओं और योगियों के विभिन्न मतों को देखकर कौन मनुष्य वैराग्यवान होकर शांत नहीं हो
जायेगा॥५॥
|
Having
seen the difference of opinions among the great sages, saints and yogis, who
will not get detached and attain peace. ॥5॥
|
कृत्वा मूर्तिपरिज्ञानं
चैतन्यस्य न किं गुरुः।
निर्वेदसमतायुक्त्या यस्तारयति संसृतेः॥९- ६॥ |
चैतन्य का साक्षात् ज्ञान
प्राप्त करके कौन वैराग्य और समता से युक्त कौन गुरु जन्म और मृत्यु के बंधन से तार नहीं देगा॥६॥
|
Knowing
consciousness directly, a guru, who is unattached and neutral, will
definitely lead others out of the cycle of birth and death. ॥6॥
|
पश्य भूतविकारांस्त्वं
भूतमात्रान् यथार्थतः।
तत्क्षणाद् बन्धनिर्मुक्तः स्वरूपस्थो भविष्यसि॥९- ७॥ |
तत्त्वों के विकार को
वास्तव में उनकी मात्रा के परिवर्तन के रूप में देखो, ऐसा देखते ही उसी क्षण तुम बंधन से मुक्त होकर अपने स्वरुप
में स्थित हो जाओगे॥७॥
|
See the
change in nature of elements as the change in quantity of finer (subtle)
entities. After seeing this, you would be free from bondage immediately and
would be established in your very nature. ॥7॥
|
वासना एव संसार इति सर्वा
विमुंच ताः।
तत्त्यागो वासनात्यागात्स्थितिरद्य यथा तथा॥९- ८॥ |
इच्छा ही संसार है, ऐसा जानकर सबका त्याग कर दो, उस त्याग से इच्छाओं का त्याग हो जायेगा और तुम्हारी यथारूप अपने स्वरुप में
स्थिति हो जाएगी॥८॥
|
Desires
(attachment) create the world. Knowing it, shun all attachments. This
detachment will lead to rejection of desires and you as consciousness will
remain as you are.॥8॥
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Tenth Chapter / दशम अध्याय
अष्टावक्र गीता(मूल
संस्कृत)
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अष्टावक्र गीता (हिंदी
भावानुवाद)
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Ashtavakra Gita
(English)
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अष्टावक्र उवाच -
विहाय वैरिणं काममर्थं चानर्थसंकुलं। धर्ममप्येतयोर्हेतुं सर्वत्रानादरं कुरु॥१०- १॥ |
श्री अष्टावक्र कहते हैं - कामना और अनर्थों के समूह धन रूपी
शत्रुओं को त्याग दो, इन दोनों के त्याग रूपी धर्म से युक्त होकर सर्वत्र विरक्त (उदासीन) हो जाओ॥१॥
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Sri
Ashtavakra says - Give up the enemies, desires and money, the primary cause
of many misfortunes. Rejecting these two will lead to righteousness and thus
be indifferent to everything.॥1॥
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स्वप्नेन्द्रजालवत् पश्य
दिनानि त्रीणि पंच वा।
मित्रक्षेत्रधनागारदारदायादिसंपदः॥१०- २॥ |
मित्र, जमीन, कोषागार, पत्नी और अन्य संपत्तियों को स्वप्न की माया के समान तीन या पाँच दिनों में नष्ट होने वाला देखो॥२॥
|
Look at
friends, land, money, wife and other properties as a dream in Maya to be
destroyed in three to five days.॥2॥
|
यत्र यत्र भवेत्तृष्णा
संसारं विद्धि तत्र वै।
प्रौढवैराग्यमाश्रित्य वीततृष्णः सुखी भव॥१०- ३॥ |
जहाँ जहाँ आसक्ति हो उसको
ही संसार जानो, इस प्रकार परिपक्व वैराग्य के आश्रय में तृष्णारहित होकर सुखी हो
जाओ॥३॥
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Wherever
there is attachment, there is world! Applying this mature non-attachment be
free of desires and attain happiness.॥3॥
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तृष्णामात्रात्मको
बन्धस्तन्नाशो मोक्ष उच्यते।
भवासंसक्तिमात्रेण प्राप्तितुष्टिर्मुहुर्मुहुः॥१०- ४॥ |
तृष्णा (कामना) मात्र ही
स्वयं का बंधन है,
उसके नाश को मोक्ष कहा जाता है। संसार में अनासक्ति से ही निरंतर आनंद की प्राप्ति होती है॥४॥
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Desires
alone are the bondage for Self. Extinguishing desires is called liberation.
Non-attachment to worldly things can only lead to continuous bliss.॥4॥
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त्वमेकश्चेतनः शुद्धो जडं
विश्वमसत्तथा।
अविद्यापि न किंचित्सा का बुभुत्सा तथापि ते॥१०- ५॥ |
तुम एक(अद्वितीय), चेतन और शुद्ध हो तथा यह विश्व अचेतन और असत्य है। तुममें अज्ञान का लेश मात्र भी नहीं
है और जानने की इच्छा भी नहीं है॥५॥
|
You are
one (without a second), conscious and pure and this world is non-conscious
and illusory. You don't have a trace of ignorance and desire to know.॥5॥
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राज्यं सुताः कलत्राणि
शरीराणि सुखानि च।
संसक्तस्यापि नष्टानि तव जन्मनि जन्मनि॥१०- ६॥ |
पूर्व जन्मों में बहुत बार
तुम्हारे राज्य, पुत्र, स्त्री, शरीर
और सुखों
का, तुम्हारी आसक्ति होने पर भी नाश हो चुका है॥६॥
|
In past
lives, many times your kingdoms, children, wives, bodies and comforts have
destroyed despite of your attachment to them.॥6॥
|
अलमर्थेन कामेन सुकृतेनापि
कर्मणा।
एभ्यः संसारकान्तारे न विश्रान्तमभून् मनः॥१०- ७॥ |
पर्याप्त धन, इच्छाओं और शुभ कर्मों द्वारा भी इस संसार रूपी माया से मन
को शांति नहीं मिली॥७॥
|
Any
amount of wealth, desires and good deeds will not result in peace from this
world of illusion.॥7॥
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कृतं न कति जन्मानि कायेन
मनसा गिरा।
दुःखमायासदं कर्म तदद्याप्युपरम्यताम्॥१०- ८॥ |
कितने जन्मों में शरीर, मन और वाणी से दुःख के कारण कर्मों को तुमने नहीं किया? अब उनसे उपरत (विरक्त) हो जाओ॥८॥
|
In how many
lives have you not taken pain in performing various activities with body,
mind and speech. Now be non-attached to them.॥8॥
|
Om Tatsat
(Continued)
(My humble salutations to vedicscriptures inc and Hindu dot com for the collection)
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